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सिनेमा

असली व्यवस्था परिवर्तन की बात : परदे पर

आरती


मैं एक असली
व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रही हूँ
जिसमें औरतें
एक साथ उठें
इस धरती के कमजोर
और नाकाम जहाज का नियंत्रण अपने हाथों में लेने के लिए

(एलिस वॉकर की कविता ' लोकतांत्रिक महिलावाद ' की कुछ पंक्तियाँ)

एलिस की बात को संदर्भ से जोड़ते हुए पहले प्रश्न की तरह देखें तो दो बिंदु एक साथ उठेंगे, पहला - इस दुनियावी जहाज का एक चप्पू पिछली कई सदियों से जंग खाया पड़ा है और दूसरा कि उस जंग को खुरचकर चमकदार बना पाने के पीछे की व्यवस्था का परिवर्तन होना चाहिए। यहाँ 'व्यक्ति' नहीं 'व्यवस्था' की बात की जा रही है। वैसे पूरी दुनिया का यह एकमात्र सुधारवादी बिंदु है जहाँ प्रश्न, संदर्भ, विषय और निष्कर्ष सब गड्डमड्ड हो जाते हैं। अलग-अलग करना बेहद जटिल होता है।

तो ऐसे पहलुओं पर आवाजें उठती रही हैं। कुछ हद तक क्रांति के रूप में भी। कुछ माँगा गया। कुछ छीना गया जबरिया। बहरहाल, यहाँ मुख्य बिंदु था कि साहित्य के मंचों से तो इस व्यवस्था परिवर्तन और दुनिया की आधी आबादी को अपने अस्तित्व-अस्मिता के लिए सोचने, संघर्ष करने के रास्ते की ओर उँगली करके जब तब बताया जाता रहा है। थोड़ा परिवर्तन देखने में आ भी रहा है। अपनी पहचान, नाम और अधिकारों को लेकर वह 'महिला' (अभी 'वाद' पर चर्चा नहीं करते वरन् रुख ही परिवर्तित हो जाएगा) थोड़ी लोकतांत्रिक हुई है। कमोबेश पिछले छह दशकों में घटी घटनाएँ और बदलती तस्वीर ऐसा दिखा पा रही है। लेकिन विडंबना कि हमारी बालीबुडिया फिल्मों की नायिका वही रही। थोड़ा परिवर्तन हुआ तो बाजार ने बोल्ड से बोल्डतर कर दिया। अर्धनग्न से लगभग नग्न दिखने लगी। देह प्रदर्शन का दौर जो राजकपूर की नायिकाओं से शुरू हुआ - वह 'आइटम' की पराकाष्ठा तक पहुँच चुका है।

प्रश्न यह कि क्या फिल्मों का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन है? या करोड़ों-अरबों कमाना? सिनेमा भी एक रचनात्मक विधा है। उसकी भूमिका समाज के लिए साहित्य की तरह ही होनी चाहिए। यहाँ दर्शक अपने समय की इबारतों को, घटनाओं को देखने-समझने की इच्छा रखता है। यह मामला केवल 'इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट और इंटरटेनमेंट...' तक सीमित नहीं है। फिल्मों की भूमिका भी अपने समय के समाज को विश्लेषित करने, प्रश्नों को पूरी शिद्दत के साथ उठाने, जवाब खोज लाने के साथ साथ उसे दिग्दर्शित करने की भी होती है।

हमारी हिंदी फिल्मों का एक बड़ा हिस्सा देखने के बाद कई सवाल उठ खड़े होते हैं कि आखिर इनके बनने के पीछे कौन सी मानसिकता काम करती है? निर्देशक दर्शकों को क्या दिखाना चाहता है? विश्व क्लासिक में अपनी भूमिका को लेकर उसके पास क्या सोच है? यदि फिल्में केवल मनोरंजन नहीं तो फिर दर्शकों को सिनेमाघरों तक कौन सी चीज खींच ले जाती है। ग्लैमर, संगीत, गीत, पटकथा या तकनीक?

सफल और अच्छी फिल्मों के बीच एक बहुत ही बारीक अंतर है। यश चौपड़ा बैनर की काल्पनिक रूमानियत से भरी फिल्में, दबंग और सन ऑफ सरदार जैसी फिल्में (एक सीमित समय के लिए) सफलता की बहुमान्य परिभाषा को दोहराती हैं तो प्रश्न उठता है कि क्या फिल्में वित्त और तकनीक के आधार पर ही सफल या असफल होती हैं। खासकर ऐसी फिल्मों के करोड़पति क्लब दौड़ की परंपरा के बाद। लेकिन सौ वर्षों की हिंदी फिल्मों का इतिहास इस प्रश्न का उत्तर 'ना' में देता है। फिल्मों की सफलता सही अर्थों में उनकी गहरी दृष्टि संवेदना और सरोकारों से तय होती है। अरसे बाद भी सत्यजीत रे, विमल राव, श्याम बेनेगल, गोपाल कृष्णन, जॉन बरुआ की फिल्मों को याद किया जाना, उन्हें सराहा जाना इस बात का पुख्ता प्रमाण है।

हिंदी फिल्मों के सौ सालों में से 95 साल बाहर निकालकर यहाँ केवल पिछले पाँच सालों का उल्लेख करना चाहूँगी। वैसे भी शुरुआत के पाँच-छह दशकों की फिल्मों की बातें तो प्रायः होती रहती हैं और 2014 में (हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने पर) साल भर लगातार उन तमाम चीजों का दोहराव-तिहराव होता रहा।

पिछले पाँच सालों में कुछ ऐसी फिल्में आई जिनमें 'स्त्री' अपनी अस्मिता के अहसास के साथ परदे पर उतरी। 2012 में बनी 'इंग्लिश विंग्लिश' गौरी शिंदे द्वारा निर्देशित फिल्म एक है। स्वयं गौरी शिंदे ने ही पटकथा लिखी। मध्यवर्ग की घरेलू महिला का फर्राटेदार अंग्रेजी न बोल पाने, पति बच्चों की सोसायटी में पिछड़ते जाने, घरेलू होने के अपमान को हर रोज, हर पल, नए नए जुमलों में सहने की अनकही वेदना का चित्राकार इस फिल्म ने किया है। लेकिन यहाँ परदे पर जो स्त्री तस्वीर पेश की गई वह हर बार दुत्कारे जाने पर केवल आँसू नहीं बहाती वरन् मौका मिलने पर दो स्थितियों के बीच की दूरी को तय करती है। वह अंग्रेजी सीखकर, बोलकर उन्हें अपने अपमान का अहसास कराती है। यहाँ कोई क्रांति नहीं, भाषणबाजी नहीं, जुमले-फिकरे नहीं फिर भी दिमाग को मथ देने की क्षमता पटकथा और रूपांकन में है। फिल्म के माध्यम से सिनेमा जगत की एक क्रांति जिसमें नायिका किसी भी प्रकार से ग्लैमर रहित है। मध्यमवर्गीय, अधेड़ उम्र की साधारण शक्लोसूरत वाली। यहाँ आकर्षण नायिका की खूबसूरती नहीं, मांसलता नहीं, वस्त्राभूषण भी नहीं, उसकी संवेदनाएँ हैं। पीड़ा है और उन सबका उपाय है।

यहाँ भाषा का चमत्कार और संवाद नहीं, मौन चित्र ही अनकहा कह सकने में समर्थ होते हैं। यहाँ नायक दंभ से आम पति की तरह ही कहता है - 'मेरी पत्नी लड्डू बनाने के लिए ही पैदा हुई है।' जैसा कि मान्यता रही है, स्त्रियों का काम सेक्सपूर्ति, बच्चे पैदा करने, उन्हें पालने पोसने (लड्डू बनाने) से अधिक और कुछ नहीं। महाकवि तुलसीदास ने भी तो 'तीन ही गुन' बताए हैं बाकी तो अवगुणों की खान है स्त्री। ऐसे में संवाद बनकर आई फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' आज भी सोशल सामंतवाद के आगे सिर झुकाए खड़े समाज के खंभों, छप्परों, दीवारों को उस नींव के बारे में सोचने के लिए विवश करती है।

दूसरी कड़ी में है फिल्म 'क्वीन'। अनुराग कश्यप ने बनाई और विकास बहल ने निर्देशित की है। पटकथा भी विकास बहस ने ही लिखी। साधारण मध्यमवर्गीय परिवार की (अभिनेत्री कंगना रनौत) गलती न होने पर भी 'सॉरी' बोलनेवाली लड़कियों में से एक है नायिका। नौकरी करके जो भी अभी तक बचाया था, उस बचत को खतम करके हनीमून के लिए टिकट और अन्य प्रबंध करती है। उसका सपना है पेरिस जाना, अपने हमदम के साथ 'एफिल टॉवर' देखना।

इन कस्बाई लड़कियों के पास ढेर सारे सपने होते हैं। और सपनों में जिंदा वे पूरा जीवन संघर्ष करके निकाल देती हैं। एक सपना पूरा होने पर दूसरा देखती हैं और पूरा न हो तो वही सपने अगली पीढ़ी के लिए देखने लगती हैं। 'प्रेम' भी इन्हीं छोटे-छोटे सपनों में से एक होता है, जिसकी कीमत भी उतनी ही बड़ी चुकानी पड़ती है। दरअसल वे यहाँ लड़की होने की कीमत ही चुकाती हैं। फिल्म के एक दृश्य में वह हँसते हँसते अपनी दोस्त से कहती है - 'इंडिया में तो लड़कियों को डकार लेना भी मना होता है।' फिल्म के दृश्य देखकर हँसी आती है कि कैसे वह अपनी थोड़े दिनों की स्वतंत्रता में स्वतंत्र होने का आनंद लेती है। बड़ी-बड़ी डकारें मारने की कोशिश करती है। लेकिन दृश्य के साथ-साथ, हर उस वर्ग की, गाँव, कस्बे की लड़की को याद आती हैं वे नसीहतें - अकेले बाहर मत जाना। छोटे भाई को साथ ले लो (फिल्म में भी नायिका के साथ छोटा भाई हमेशा ही रहता है)। थोड़ा धीरे हँसो, धीरे चलो, नीची नजरें करके? ऐसे अनगिनत वाक्य और इन्हें सुनने की आदत इस वर्ग की लड़कियों को नोजरिंग, इयररिंग, चूड़ी अँगूठी की तरह ही हो जाती है। बहुत सी चीजें तो उन्हें बुरी भी नहीं लगती। अपनी दासता की तरह। औरतों को दासता भोगने में आनंद आता है? शायद सदियों की आदत उन्हें अहसास ही नहीं होने देती। बाकायदा वह शोषण का स्वाद लेने लगती है। फ्रैंच उपन्यास 'कहानी ओ की' (पॉलाँ रीगे का लिखा) नायिका 'ओ' के सामने नायक ट्रे में बाकायदा करीने से रखे कोड़े, हंटर, चाबुक पेश करके पूछता है कि वह किसका 'स्वाद' लेना पसंद करेगी। और वह इशारे से बताती है। यह कहानियों के पीछे की कहानी है। जो आत्मपीड़न को आनंद का नाम देने की भर्त्सना भी करती है। भारतीय समाज इसी आत्मपीड़न को त्याग का नाम देता है। सुख में पीछे और दुख में आगे खड़े होने का अभ्यास इस 'स्त्री' सिस्टम के नस-नस में समाया है। सदियों की सुपर कंडीसनिंग में सत्य का अहसास भी उसे त्रासद लगता है। वह स्वतंत्रता के खतरे उठाने के लिए भी तैयार नहीं। ऐसी व्यवस्थाओं के बीच किसी लड़की के भीतर आत्मविश्वास कैसे आएगा। लेकिन इस फिल्म की नायिका भोलेपन के साथ कोशिश करती है। अकेले हनीमून पर जाने (शादी तोड़ देने पर) की जिद के साथ। अपने छोटे-छोटे काम करती है - जैसे सड़क पार करना, होटल में पहली बार अकेले रात गुजारना। यह सब करते हुए वह आत्मविश्वास जो बड़े-बड़े लेख पढ़ने के बाद भी नहीं आता, वह उसमें आता है। वापस लौटकर शिकायत का एक शब्द भी नहीं दुहराते हुए 'सगाई की अँगूठी' वापस कर देती है। उलाहनों के बिना, मुस्कुराते हुए। डायलागबाजी कमजोरी की निशानी है। जब व्यक्ति में साहस और कुछ कर सकने की क्षमता का उदय होता है तब वह बोलता कम, करता ज्यादा है। एक बात ध्यान देने लायक है - इधर की फिल्मों में डायलॉग कम होते जा रहे हैं। वे मौन में ज्यादा कह सकने में समर्थ हुई हैं। कुछ दिनों का आत्मविश्वास पूर्ण वातावरण एक लड़की के दब्बूपने को आत्मविश्वास में बदल देता है। वस्तु का व्यक्ति में रूपांतरण होता है। स्वतंत्रता की चेतना के एक बूँद की कहानी है यह फिल्म। और व्यवस्था परिवर्तन का संकेत भी।

एक और फिल्म 'एन एच-10' पर कुछ बिंदुओं को लेकर बात करना प्रासंगिक है। लीड अभिनेत्री और निर्माता हैं अनुष्का शर्मा एवं फिल्म को निर्देशित किया है नवदीप सिंह ने। यह क्राइम थ्रिलर फिल्म है जो ब्रिटिश फिल्म 'इडेन लेक' 2008 की याद दिलाती है। यहाँ मुख्य भूमिका में नायिका है। फिल्म में स्त्री के प्रति समाज की मानसिकता - कि रात में बाहर निकलना, वह भी अकेली, ड्राइविंग करना, जैसी बातें घटनाओं के जरिए उजागर होती हैं। फिल्म खाप पंचायतों के अमानवीय कृत्यों, रक्त संबंधों की शुद्धता जैसे बिंदुओं को उभारकर सामने लाती है। कहानी के पीछे की कहानी का विद्रूप चेहरा दिखा पाने में फिल्म एक हद तक सफल रही है। जबरन आ पड़ी परिस्थितियों में साहस दिखाती, दौड़ती भागती खुद की और पति की जान बचाने में जुटी नायिका। आपराधिक काली रात में साँस रोक रखनेवाले दृश्यों के बीच, नायिका का नया रूप और आखिर में बदला, बिल्कुल उसी तरह, विलेन की ही तर्ज में। यहाँ अपराध का बदला आपराधिक कदम, हत्या के बदले में हत्या जैसे प्रश्न उठते हैं? व्यवस्था जो व्यक्ति को पाशविक बनाती है उसका क्या होगा? वह तो वहीं रहीं? जैसे प्रश्न फिल्म की नब्ज को कुरेदते हैं। लेकिन इन सबसे अलग हटके, फिल्म उस स्त्री विरोधी मानसिकता के भाषाई तेवर को बड़ी शिद्दत से उठाती है। जो अमानवीय परिस्थितियों की जड़ में समाई है। स्त्री के प्रति भाषा में अपमान, उसकी हैसियत लैंगिक गालियाँ छोटे-छोटे शब्दों में तय करती रहती है। यहाँ भाषा सबसे तेज धारदार हथियार होती है। वहाँ एक व्यक्ति दूसरे का अपमान कर, खुद सम्मान जैसा महसूस करता है।

कारपोरेट सेमिनार हाल से लेकर रेलों, बस अड्डों के टायलेटों पर स्त्री के लिए प्रयोग किए गए 'शब्दों' ने हमेशा दुर्गा सप्तशती की धूल भरी तस्वीर को झाड़ पोंछकर साफ किया है। स्त्री के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द, मुहावरे, जुमले अपरोक्ष गालियाँ ही होती हैं। इस भाषा प्रयोग को हम गँवई और शहरी खाँचों में बाँटकर देख सकते हैं। शहरी-महानगरीय खाते में कुछ नए शब्द आएँगे जैसे कि - सेक्सी, मस्त आइटम, माल, और देहात के हिस्से में आएँगी ठस और ठोस गालियाँ। फिल्म में नायिका ढाबे के शौचालय में लिखे 'रंडी' शब्द को देखकर काँप जाती है। लेकिन अनदेखा करके आगे नहीं निकलती वरन अपने रूमाल से पोंछकर साफ करती है। कहानी कमोबेश भाषा से कुछ ऐसे विकृत शब्द मिटाने की पहल तो करती है। कठघरे में तो साहित्य भी कम नहीं। स्त्री के सौंदर्य वर्णन में तो पूरे एक काल का प्रयोग किया गया। यहाँ बड़ी ही मधुर भाषा का प्रयोग हुआ है। दूसरा चेहरा - लोक के नाम पर गालियों का महिमामंडन कर रहा है। क्या कभी प्रयोगकर्ताओं ने सोचा कि वे लोक रिवायतों को नहीं लिंगीय, अहंवादी, कुपढ़ और हिंसक मानसिकता को इसके बहाने पोस रहे हैं। कथाजगत पिछले चालीस सालों में ऐसी भाषा की प्रयोगशाला रहा है। यहाँ प्रयोगिक का अर्थ यथार्थवादी, लोकोन्मुख बताया जाता है। पता नहीं प्रेमचंद की आँखों से ऐसा यथार्थ कैसे छुपा रहा। न ही 'रेणु' किसी ऐसे अंचल का वर्णन कर पाए। जहाँ गालियों से एक दूसरे का अभिवादन किया जाता रहा हो। भाषाविदों का कहना है कि भाषा उत्पादक गतिविधियों के साथ ही मनुष्य के सारे क्रियाकलापों से जुड़ी होती है। यानी स्त्री के प्रति भाषा का रवैया उसकी दोयम हैसियत को दर्ज करता है। गालियों के आईने में देखा जाय तो हमारी भाषा का लिंग चरित्र ही बलात्कार, हिंसा की संस्कृतियों को जन्म देता है। काश यहाँ स्त्री के दिमाग, हुनर के लिए भी कुछ शब्दों का प्रयोग किया गया होता तो आज फास्ट ट्रैक अदालतों की आवश्यकता नहीं पड़ती।

पिछले आधे दशक की फिल्में एक आशा की किरण जगाती हैं। जिनमें अभी हालिया आई 'मसान' प्रेम को महसूस कर सकने की हिम्मत जुटा पाई 'हमारी अधूरी कहानी' की नायिका 'हाइवे', 'जोर लगाके हईशा', 'लागा चुनरी में दाग', जैसी फिल्में हैं। यदि भारी व्यावसायिक दबावों, अंधी प्रतियोगिता के बीच कुछ प्रश्नों को फलक पर खड़ा कर सकने की हिम्मत ये फिल्म एक के बाद एक कर पा रही हैं तो निश्चय ही प्रशंसनीय है। हम सिने जगत की नई आवाजों से उम्मीद कर सकते हैं कि वे दृश्य पटल पर स्त्री के सम्मान में कुछ दृश्यों को जोड़ पाने में जरूर सफल होंगी। एक व्यक्ति की तरह का सम्मान। कृष्णा सोबती के उपन्यास 'ए लड़की' की अम्मा की तरह।


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हिंदी समय में आरती की रचनाएँ